ज़कात के मसाइल ज़कात के मानी
بِسْمِ اللهِ الرَّحْمنِ الرَّحِيْم
اَلْحَمْدُ لِلّهِ رَبِّ الْعَالَمِيْن،وَالصَّلاۃ وَالسَّلامُ عَلَی النَّبِیِّ الْکَرِيم وَعَلیٰ آله وَاَصْحَابه اَجْمَعِيْن۔
ज़कात के मसाइल
ज़कात के मानी
ज़कात के मानी पाकीज़गी, बढ़ौतरी और बरकत के हैं। अल्लाह तआला ने इरशाद फरमाया “उनके माल से ज़कात लो ताकि उनको पाक करे और बाबरकत करे उसकी वजह से और दुआ दे उनको।” (सूरह तौबा 103) शरई इस्तेलाह में माल के उस खास हिस्से को ज़कात कहते हैं जिसको अल्लाह तआला के हुकुम के मुताबिक़ फकीरों, मोहताजों वगैरह को देकर उन्हें मालिक बना दिया जाए।
ज़कात का हुकुम
ज़कात देना फर्ज़ है, क़ुरान करीम की आयात और हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशादात से इसकी फर्ज़ियत साबित है। जो शख्स ज़कात के फर्ज़ होने का इंकार करे वह काफिर है।
ज़कात की फर्ज़ियत कब हुई
ज़कात की फर्ज़ियत इब्तिदाए इस्लाम में ही मक्का के अंदर नाज़िल हो चुकी थी जैसा कि इमाम तफसीर इब्ने कसीर ने सूरह मुज़्ज़म्मिल की आयत से इस्तिदलाल फरमाया है। क्योंकि यह सूरत मक्की है और बिल्कुल इब्तिदाए वही के ज़माने की सूरतों में से है, अलबत्ता अहादीस से मालूम होता है कि इब्तिदाए इस्लाम में ज़कात के लिए कोई खास निसाब या खास मिक़दार मुक़र्रर न थी बल्कि जो कुछ एक मुसलमान की अपनी ज़रूरत से बच जाता उसका एक बड़ा हिस्सा अल्लाह की राह में खर्च किया जाता था। निसाब का तअय्युन और ज़कात की मिक़दार का बयान मदीना में हिजरत के बाद हुआ।
ज़कात के फवायद
ज़कात एक इबादत है, अल्लाह का हुकुम है, ज़कात निकालने से हमें कोई मंफअत हासिल हो या न हो, कोई फायदा मिले या न मिले, अल्लाह के हुकुम की इताअत बज़ाते खुद मक़सूद है, असल मक़सद तो ज़कात का यह है, लेकिन अल्लाह का करम है जो कोई बन्दा ज़कात निकालता है तो अल्लाह उसको दुनियावी फवायद भी अता फरमाते हैं, उन फवायद में से यह भी है कि ज़कात की अदाएगी बाक़ी माल में बरकत, इज़ाफा और पाकीज़गी का सबब बनती है।
चुनांचे क़ुरान करीम (सूरह बक़रह 276) में अल्लाह तआला ने इरशाद फरमाया “अल्लाह सूद को मिटाता है और ज़कात और सदक़ात को बढ़ाता है।”
एक हदीस में हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि जब कोई बन्दा ज़कात निकालता है तो फरिशते उसके हक़ में दुआ करते हैं कि ऐ अल्लाह! जो शख्स अल्लाह के रास्ते में खर्च कर रहा है उसको और ज़्यादा अता फरमा और ऐ अल्लाह! जिस शख्स ने अपने माल को रोक कर रखा है और ज़कात अदा नहीं कर रहा है तो ऐ अल्लाह उसके माल पर हलाकत डाले।
एक हदीस में हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कोई सदक़ा किसी माल में कमी नहीं करता है।
ज़कात किस पर फर्ज़ है?
उस मुसलमान आक़िल बालिग पर ज़कात फर्ज़ है जो साहबे निसाब हो। निसाब का अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा और क़र्ज़ से बचा हुआ होना शर्त है, नीज़ माल पर एक साल गुज़रना भी ज़रूरी है, लिहाज़ा मालूम हुआ कि जिसके पास निसाब से कम माल है या माल तो निसाब के बराबर है लेकिन वह क़र्ज़दार भी है या माल साल भर तक बाक़ी नहीं रहा तो ऐसे शख्स पर ज़कात फर्ज़ नहीं है।
ज़कात का निसाब
52.5 तोला यानी 512.36 ग्राम चांदी या 7.5 तोला सोना या उसकी क़ीमत का नक़द रूपया या ज़ेवर या सामाने तिजारत वगैरह जिस शख्स के पास मौजूद है और उस पर एक साल गुज़र गया है तो उसको साहबे निसाब कहा जाता है। औरतों के इस्तेमाली ज़ेवर में ज़कात के फर्ज़ होने में उलमा की राय मुख्तलिफ हैं। चूंकि ज़कात की अदाएगी न करने पर क़ुरान व हदीस में सख्त वईदें आई हैं लिहाज़ा इस्तेमाली ज़ेवर पर भी ज़कात अदा करनी चाहिए।
ज़कात कितनी अदा करनी है?
ऊपर ज़िक्र किए गए निसाब पर सिर्फ ढाई फीसद (2.5%) ज़कात अदा करनी ज़रूरी है।
समाने तिजारत में क्या क्या दाखिल है?
माले तिजारत में हर वह चीज़ शामिल है जिसको आदमी ने बेचने की गरज़ से खरीदा हो, लिहाज़ा जो लोग इंवेस्टमेंट की गरज़ से प्लाट खरीद लेते हैं और शुरू ही से यह नियत होती है कि जब अच्छे पैसे मिलेंगे तो उसको बेच करके उससे नफा कमाएंगे, तो उस प्लाट की मालियत पर भी ज़कात वाजिब है। लेकिन प्लाट इस नियत से खरीदा कि अगर मौक़ा हुआ तो उस पर रिहाइश के लिए मकान बनवा लेंगे या मौक़ा होगा तो उसको किराया पर चढ़ा देंगे या कभी मौक़ा होगा तो उसको बेच देंगे, यानी कोई वाज़ेह नियत नहीं है बल्कि वैसे ही खरीद लिया तो इस सूरत में इस प्लाट की क़ीमत पर ज़कात वाजिब नहीं है।
किस दिन की मालियत मोतबर होगी?
ज़कात की अदाएगी के लिए उस दिन की क़ीमत का एतेबार होगा जिस दिन आप ज़कात की अदाएगी के लिए अपने माल का हिसाब लगा रहे हैं।
हर हर रुपये पर साल का गुज़रना ज़रूरी नहीं
एक साल माल पर गुज़र जाए इसका मतलब यह नहीं कि हर साल हर हर रूपये पर मुस्तक़िल साल गुज़रे, यानी गुजश्ता साल रमज़ान में अगर आप
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